परेशानी किसको कहा


परेशानी किसको कहा 

आज जो हम देख रहे हैं वह बहुत ही भयानक समय के पूर्णता विपरीत है जिसकी कल्पना करना मूर्खता होगी लेकिन यह कब यथार्थ में बदल गई इसकी कल्पना न आपने की न मैंने लेकिन यथार्थ यथार्थ रहता है प्रश्न यह है कि वह कौन सा यथार्थ है जो यथार्थ बोलने पर ज्यादा बल दे रहा है
गरीबी उन्मूलन का या अमीरी उन्मूलन का समझ नहीं आता एक तरफ लोग इत्मीनान से रामायण महाभारत व अन्य भौतिक संसाधनों से अपने घर में ही रहकर अपने परिवार के साथ वक्त साझा कर रहे हैं लेकिन एक तबका ऐसा भी है समाज का जो दिहाड़ी मजदूर रोज खाने रोज कमाने वाला है न तो उसके सिर पर छत है और न ही पेट के लिए रोटी ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं भारत तमाम मुश्किलों का सामना करने के लिए तैयार है हम दूसरे देशों को किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं क्या यह यथार्थ नहीं है ?
जो लोग अपने घर पर जाने के लिए मिलो दूरी पैदल जाने के लिए मजबूर हैं और एक तरफ वह लोग जो इस महामारी को हवाई जहाज में लेकर आए और इन गरीबों के ऊपर सारा ठीकरा फोड़ दिया क्या यह यथार्थ नहीं है हम किस तरह भारतीयता कि बात करते हैं क्या इस महामारी से निपटने के लिए कुछ और दिन पहले इसकी सारी सावधानियां सरकार के ध्यान में नहीं आई और आएगी भी क्यों क्योंकि यह तो अमीरों के साथ चल कर आई है मुझे आप बता दीजिए आपके गांव का कोई भी ऐसा शख्स जो इस बीमारी को चीन के उहान शहर से लेकर आया शायद आपको तो चीन और चाइना मैं भी फर्क नहीं मालूम है तो फिर आप यह कैसे समझेंगे अपने परिवार और आसपास वालों को कि यह बीमारी विदेश से भारत कैसे आई जो आज गरीबों की कमर तोड़ रही है
उन्हें मजबूर कर रही है अपने परिवार से मिलाने को
उन्हें मजबूर कर रही है अपने घर जाने को
उन्हें मजबूर कर रही है खाने को
उन्हें मजबूर कर रही है खुद की भूख से पहले जान बचाने को....
क्या यह यथार्थ नहीं है यदि यथार्थ यह नहीं है तो हम फिर किसे    कहेंगे उन परिवारों को जो अपने घरों में मनोरंजन के लिए महाभारत रामायण व अन्य भौतिक सुख सुविधाओं का लाभ उठा रहे है या फिर उन्हें जो इस महामारी को उपहार स्वरूप लेकर आएं जो 1 दिनों में हजारों लोगों से मिलते हैं यदि 1 दिन ना मिले तो उनकी फैन फॉलोइंग कम हो जाती है उनके अनुसार या फिर यथार्थ का मतलब वह गरीब है जो मिलो दूरी तय कर अपने घर भी नहीं पहुंच पा रहा है खाने के लाले पड़े हुए हैं जिस की तादाद अब लाखों में दिल्ली सहित पूरे  के  रोड पर नजर आ रही है आप और हम जिम्मेदार किसे ठहराएंगे मारने वाले को या बचाने वाले को इसमें बचाने वाला यथार्थ है या मरने वाला यथार्थ है यह प्रश्न अपने आप से पूछिए क्या कहता है मुझे नहीं लगता कि आप इस प्रश्न से संतुष्ट होंगे क्योंकि यह मुद्दा एक सिक्के का दो पहलू बना हुआ है जीत और पठ दोनों ही उनके हैं जिन्होंने यह ठोस निर्णय इस महामारी से बचने के लिए लिया है और हम उसका पुरजोर समर्थन करते हैं लेकिन हम उन्हें भी अपने समाज से अलग नहीं देखना चाहते जिन पर जबरदस्त लाठीचार्ज हो रही यह उनकी कताई गलती नहीं है यह लाठी या डंडे या मेडिकल उपचार उस समय ही हो जाना चाहिए था जब अन्य देशों में इस महामारी का शुमार चल रहा था लेकिन ऐसा नहीं हुआ हमने उस अंतिम तबके को अंजाम दिया जिसकी गलती कभी थी ही नहीं हमें यदि इस तरह का पूर्वाभास होता तो हम सभी उसके प्रति एकजुट होकर उससे निपटने के लिए तितर-बितर ना होते खासकर वह गरीब मजदूर जो दिहाड़ी मजदूरी कर अपने परिवार का पालन पोषण करता है वह सिर्फ सुबह और शाम के भोजन की व्यवस्था प्रतिदिन करता है उसे पता नहीं था इस तरह की भुखमरी का भी सामना करना पड़ जाए जो किसी भी मजदूर के मूल स्वभाव के विपरीत है यथार्थ हम किसे कहेंगे एक बार और सोच ले और इस लाठी खाने वालों और गरीब तबके मैं से जिम्मेदार कौन लाठी खाने वाला या फिर वह जो लाठी मारने वाला..........?
आपके लिए यह प्रश्न छोड़ रहा हूं
यथार्थ क्या................?


-Tatya'Luciferin'

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