प्राचीन काल में समाज की अवधारणाएं कुछ अलग अलग थी उनके वैचारिक मत उनकी शैली उनकी वेशभूषा उनका व्यवहार उनके कार्य कुशलता सारी समाज पर निर्भर थी लेकिन जैसे-जैसे मानव मस्तिष्क का विकास होता गया और वह समाज के नए-नए आयामों को गढ़ता गया वह बहुत ही दृढ़ तथा अपने अस्तित्व एवं संस्कृति को प्राथमिकता देता था लेकिन आधुनिक भौतिक सुख सुविधा ने समाज के विभिन्न पहलुओं को क्रमबद्ध तरीके से परिवर्तन किया है समाज की पुरानी बातें कुटुंब कबीले की याद दिलाती है जो कभी छोटे-छोटे झुंड बनाकर या एक समाज बनाकर रहते थे कुछ समाज के समुदाय तो इस प्रकार भी हुआ करते थे जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपना निवास करते थे उनका अपना व्यवसाय हुआ करता था 'भाव पक्ष' एवम् ' हम की भावना' बहुत अधिक सक्षम थी लेकिन जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ वैसे वैसे कुछ बुनियादी बातें समाज के स्तर से गायब होने लग गई
उदाहरण:- ग्रामीण समाज का व्यक्ति यदि किसी शहर (नगरी समाज) मैं आए तो उसे अपने यहां से लोग 10 गुने लोग मिल जाएंगे लेकिन उसके खाने पीने रहने कि पूछने वाला कोई नहीं नगरी समाज अपने कामों में ग्रामीण समाज की तुलना में ज्यादा व्यस्त रहता है यदि इसका विपरीत करके देखे तो आज भी किसी गांव में कोई अनजान व्यक्ति चला जाता है तो उसके आसपास 10 से 20 लोग आकर पूछते हैं
कौन हो?
कहां रहते हो?
किन के घर आए हो?
इस तरह के तमाम प्रश्न पूछे जाते हैं रुकने की व्यवस्था ना हो तो मंदिर या धर्मशाला में ठहराया जाता हैं भोजन पानी की व्यवस्था की जाती है लेकिन शहरों में यह सारी बातों का मोल नहीं होता है अतः समाज शब्द का उपयोग हम अपनी जुबान पर रखते हैं
किसी व्यक्ति से पूछो तो वह कहेगा
में हिंदू हूं
में मुस्लिम में हूं
मैं इसाई हूं
इन शब्दों से समाज शब्द का अर्थ भलीभांति दिखाईं दे रहा हैं अतः हम कह सकते है कि बोल चाल की भाषा के अनुसार समाज के अर्थ भी भिन्न भिन्न होते गए हैं समाज के अर्थ के साथ साथ रीति - रिवाज , मान्यताएं, देवी देवता, संस्कृति आदि अनेक जिसको वह मानते हो । जिससे आप और हम भलीभांति परिचित हैं
प्राणी समाज का एक अभिन्न अंग हैं अकेले व्यक्ति से समाज नहीं बनता यदि हम समाज को परिभाषित करें तो समाज का अर्थ हुआ उसमें रहने वाले लोगों का आपसी गुच्छा' जो मानवीय, सामाजिक ,सांस्कृतिक, भौगोलिक, व्यवहारिक व समानता के बीच संप्रेक्षण आदि के विकास को पूर्ण करता है जिसे हम समाज कहते हैं यदि हम इन्हीं सभी बिंदुओ का क्रमबद्ध अध्ययन करें तो समाजशास्त्र को परिभाषित करेगा
अर्थात यदि हम इसके कारण और विविधता का क्रमबद्ध अध्ययन करके विचार विमर्श करें तो यहां एक समाजशास्त्र तथा समाजशास्त्र विज्ञान कहलाएगा
बदलती हुई समाज की परिभाषा तथा मतभेद का होना लाजमी है एक तरफ हम नई-नई भौतिक आधुनिक वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं और दूसरी तरफ समाजशास्त्र को बढ़ावा दे रहे हैं जिसमें समाज के समस्त सदस्यों का हितार्थ है और नुकसान भी
ज्ञान के सभी क्षेत्रों में हम पश्चिम का अनुकरण करते हैं लेकिन पूरा विश्व मानता है भारत का ज्ञान सब में सर्वोपरि है क्योंकि विश्व व्यापी शैक्षणिक संस्थान तक्षशिला एवम् नालंदा भारत में शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे जिसमें अध्ययन करने के लिए विदेशों से छात्र आते थे इससे स्पष्ट होता है हमारा प्राचीन समाज
सुविकसित एवं सुदृढ़ था लेकिन उसके बाद समाज की विभिन्न परिभाषाएं हुई तथा समाज शास्त्रियों में आपसी मतभेद कोई समाज शास्त्रीय को समाज विज्ञान मानता है तो कोई समाजशास्त्र को विज्ञान का तवज्जो नहीं देता है
क्योंकि समाज एक परिवर्तन रूप है जो प्रतिदिन निरंतर बदलता ही रहता है इसका कोई अपना स्थाई रूप नहीं है लेकिन इसे विज्ञान कहना भी गलत नहीं होगा क्योंकि इसमें समस्त समाज से जुड़ी हुई घटनाएं, मान्यताएं, संस्कृति, भौगोलिक स्थिति, पर्यावरणीय क्षेत्र सभी बिंदुओं को विस्तृत रूप से क्रमबद्ध तरीके से अध्ययन किया जाता है अतः हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्र एक विज्ञान है
कुछ समाज शास्त्रियों के अनुसार
आगस्ट काम्ट : - ' समाजशास्त्र सामाजिक व्यवस्था और प्रगति का विज्ञान है'
मेकाइवार और पेज :- ' समाजशास्त्र सामाजिक संबंध के विषय में हैं संबंधों के जाल को हम समाज कहते हैं '
अतः हम कह सकते हैं कि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है समाज व समाजशास्त्र का मूल यथार्थ रूप परिवर्तन है
आज हमने संक्षेप में समाज और समाजशास्त्र के बारे में जाना इससे आगे भी हम भविष्य में विस्तृत व्याख्या करेंगे ।
संतोष तात्या (- Tatya luciferin)
👍
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